छठ महापर्व: प्रकृति से समर्पण और आस्था का प्रतीक, ना पंडित, ना कोई मंत्र, बस सच्ची आस्था और समर्पण… पूरी तरह प्रकृति को समर्पित है छठ महापर्व

छठ महापर्व भारत के विभिन्न हिस्सों में बड़े श्रद्धा और श्रद्धालुता के साथ मनाया जाता है। विशेषकर बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड और नेपाल के कुछ हिस्सों में यह पर्व अत्यधिक महत्व रखता है। यह एक ऐसा महापर्व है, जो न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि प्रकृति और पर्यावरण के प्रति हमारे समर्पण और प्रेम को भी दर्शाता है। छठ पूजा में कहीं ना कहीं हमें अपने पुराने पारंपरिक मूल्यों की झलक मिलती है, जो हमारे समाज में समानता, शांति और प्राकृतिक संसाधनों के प्रति हमारी जिम्मेदारी को दर्शाती है।
इस महापर्व में ना तो किसी पंडित की आवश्यकता होती है, न ही कोई तंत्र-मंत्र या पूजा विधि की जरूरत होती है। यहाँ बस सच्ची आस्था और समर्पण ही प्रमुख होते हैं। इस विशेष पर्व में सूर्य देव और उनकी पत्नी छठी माई की पूजा की जाती है। विशेष रूप से, जहां अधिकतर पूजा उगते सूर्य की होती है, वहीं छठ महापर्व में डूबते सूर्य की पूजा की जाती है, और यह हमारे जीवन में दिन और रात, अंधकार और प्रकाश के संतुलन को दर्शाता है।
प्राकृतिक तत्वों के प्रति समर्पण
छठ महापर्व में जिस तरह से प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग किया जाता है, वह हमारे समाज की गहरी आस्था और प्रकृति के साथ सामंजस्यपूर्ण संबंध को प्रमाणित करता है। इस पर्व में जो कुछ भी प्रसाद के रूप में लिया जाता है, वह सभी प्रकृति से उपजित होते हैं। कोई भी कृत्रिम या मिलावटी वस्तु का यहां स्थान नहीं होता। इस महापर्व में जो अन्न और फल खाए जाते हैं, वे सभी खेतों से सीधे घरों तक आते हैं, और इन्हें बिना किसी कृत्रिमता के ग्रहण किया जाता है।
जैसे, “नहाए-खाए” के दिन परंपरा के अनुसार कद्दू की सब्जी (कद्दू-भात) खाना एक विशेष परंपरा है। कद्दू का यह प्रसाद पूरी तरह से खेतों से लिया जाता है और यह हमें यह सिखाता है कि प्रकृति हमें हर चीज देती है, हमें उसका सम्मान करना चाहिए। कद्दू के साथ चावल (भात) भी एक अहम हिस्सा है, जो शुद्ध और प्राकृतिक रूप से खेतों में उगता है। यही नहीं, इस दिन बनाए जाने वाले प्रसाद में केवल स्थानीय सामग्री का ही इस्तेमाल होता है, जैसे गाय का घी, शुद्ध गेहूं का आटा, गुड़, और चावल—यह सब पर्यावरण के साथ हमारे संबंधों की मजबूती को दर्शाता है।
छठ पूजा का पारंपरिक तरीका और उसके प्रभाव
छठ पूजा के दौरान जिस तरीके से पूजा अर्चना की जाती है, वह पूरी तरह से सामूहिक भावना और समानता को दर्शाता है। इस दिन, हर घर, हर परिवार, और हर जाति-बिरादरी से लोग एक साथ मिलकर पूजा करते हैं। एक घाट पर लोग एक कतार में खड़े होकर सूर्य देव और छठी माई को अर्घ्य अर्पित करते हैं। खास बात यह है कि इस समय किसी प्रकार का भेदभाव या असमानता नहीं होती। समाज के प्रत्येक व्यक्ति की आस्था और श्रद्धा समान होती है।
छठ पूजा के दौरान लोग अपनी टोकरी में जो प्रसाद रखते हैं, वह सच्चे श्रद्धा भाव से तैयार किया जाता है। यह टोकरी आमतौर पर बांस की बनी होती है, और इसमें वही फल होते हैं, जो उस मौसम में उपलब्ध होते हैं। जैसे सेब, संतरा, नाशपाती, अमरूद, अनार, मूली, अदरक आदि। इन सबका चयन प्राकृतिक रूप से होता है, और इनका कोई कृत्रिम रूप से उत्पादन या प्रसंस्करण नहीं किया जाता। यही कारण है कि यह पर्व पूरी तरह से प्राकृतिक और सरल होता है।
कृषि से जुड़ी परंपराएँ और छठ महापर्व
छठ महापर्व के दौरान विशेष ध्यान दिया जाता है कि हम अपने हर क्रिया-कलाप को कृषि और पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी के रूप में देखें। खरना के दिन जो खास रोटियाँ बनती हैं, वह शुद्ध गेहूं के आटे से बनाई जाती हैं। इस आटे को पुराने तरीकों से, मिट्टी के चूल्हे पर पकाया जाता है। इसके साथ-साथ, गाय के गोबर के उपलों और आम की लकड़ी का जलावन के रूप में उपयोग होता है। यह प्रक्रिया न केवल हमें हमारी कृषि परंपराओं से जोड़ती है, बल्कि पर्यावरण संरक्षण और हरित ऊर्जा के महत्व को भी उजागर करती है।
खरना के दिन गाय के घी का इस्तेमाल होता है, और गुड़ का स्वादिष्ट पकवान तैयार किया जाता है, जो शुद्ध और प्राकृतिक होता है। इसमें किसी प्रकार के रासायनिक तत्वों का इस्तेमाल नहीं किया जाता, जिससे यह हमें अपने प्राकृतिक संसाधनों की उपेक्षा न करने की याद दिलाता है।
छठ महापर्व में समानता और सामूहिकता का महत्व
यह महापर्व केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह हमारे समाज के हर वर्ग को एकत्रित करने का माध्यम भी है। एक ही घाट पर सभी लोग, चाहे वे अमीर हों या गरीब, उच्च जाति से हों या निम्न जाति से, एक ही तरह से सूर्य देव और छठी माई की पूजा करते हैं। यह पर्व समाज में भेदभाव को समाप्त करने का एक प्रभावी तरीका बन गया है।
अर्घ्य देने का तरीका भी इस पर्व की अनूठी विशेषता को उजागर करता है। जल में खड़े होकर अर्घ्य देना एक प्रकार से हमारे जीवन में पानी के महत्व को दर्शाता है। यह उस मानसिकता को भी साकार करता है कि हम जिस प्राकृतिक संसाधन का उपयोग करते हैं, उसकी हमें कद्र करनी चाहिए और उसके साथ सामंजस्यपूर्ण संबंध बनाए रखने चाहिए।
समाज और पर्यावरण की जिम्मेदारी
छठ पूजा के दौरान सभी घरों और पूजा स्थलों की स्वच्छता पर विशेष ध्यान दिया जाता है। यह महापर्व हमें यह सिखाता है कि जब हम अपने ईश्वर का आदर करते हैं, तो हमें अपनी चारों ओर की दुनिया, प्रकृति, और पर्यावरण का भी सम्मान करना चाहिए। स्वच्छता का ध्यान रखते हुए पूजा स्थलों की सफाई की जाती है, और यह पर्व हमें यह प्रेरणा देता है कि अपने पर्यावरण को बचाना और संजीवित रखना हमारी जिम्मेदारी है।
सारांश
छठ महापर्व न केवल सूर्य देवता और छठी माई की पूजा है, बल्कि यह एक ऐसा अवसर है, जो हमें हमारी प्राकृतिक धरोहर के प्रति आस्था और प्रेम को पुनः जागृत करता है। यह हमें यह सिखाता है कि जीवन में संतुलन और समर्पण का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है। इस पर्व के दौरान जो कुछ भी किया जाता है—चाहे वह प्रसाद बनाना हो, या अर्घ्य देना हो—वह पूरी तरह से प्राकृतिक और पारंपरिक होता है। इस महापर्व में हमें हमारी पर्यावरणीय जिम्मेदारी, शुद्धता, और समानता के महत्व का अहसास होता है।
यह पर्व हमें यह समझने में मदद करता है कि हमारे जीवन का हर पहलू, चाहे वह आस्था हो, परंपरा हो, या हमारा दैनिक जीवन हो, हमें हमेशा प्रकृति से जुड़ा रहना चाहिए और उसका सम्मान करना चाहिए। यही कारण है कि छठ महापर्व अपने आप में सबसे विशेष, सबसे प्राकृतिक और सबसे अनूठा पर्व है, जो आज भी हमारे दिलों में गहरे संस्कारों और आस्थाओं के साथ जीवित है।
छठी माई और भगवान भास्कर के लिए जो कुछ भी प्रसाद में मिलता है या बनता है, वह सभी प्रकृति से उपजे हुए हैं। अगर हम नहाए खाए से शुरू करें तो कहीं ना कहीं इस दिन कद्दू भात खाने का चलन है। यानी कि कद्दू की सब्जी जो कहीं से बनावटी नहीं है।
मंगलवार से छठ महापर्व की शुरुआत होने वाली है। यह पूरी तरीके से प्राकृतिक को समर्पित महापर्व है जहां लोगों की आस्था सूर्य को समर्पित है। उगते सूर्य की तो हर कोई पूजा करता है, लेकिन छठ महापर्व में डूबते सूर्य की पूजा की जाती है। इस महापर्व में स्वच्छता और शांति का भी विशेष ध्यान रखा जाता है। साथ ही साथ प्रसाद के रूप में जो कुछ भी होता है, वह पूरी तरीके से प्रकृति पर आधारित है। इसमें बाजार का सामान शामिल नहीं होता है। यह वैसा पर्व है जहां किसी पंडित की जरूरत नहीं, कोई मंत्र की जरूरत नहीं, जरूरत सिर्फ है तो सच्ची आस्था और समर्पण की। यहां हर भेदभाव मिट जाता है। एक ही घाट पर हर समाज और वर्ग से आने वाले लोग अर्घ्य देते हैं। अर्घ्य भी जल में खड़े होकर दिया जाता है।
सम्मान सबका बराबर है, सबकी आस्था बराबर है, सबका प्रसाद भी बराबर है। अर्घ्य के लिए जब पूरा गांव एक कतार छठ घाट के लिए निकलता हैं तो उसकी रौनक अलग ही होती है। यहां सभी एक सा लगते हैं। किसी में कोई बनावटी नहीं होता है। सब भगवान सूर्य और छठी माई की आस्था में शराबोर होते हैं। यहां पूजा करने का तरीका एक है। आप कितने भी बड़े आदमी क्यों ना हो, आपके टोकरी में भी वही ठेकुआ और फल होंगे जो किसी गरीब की टोकरी में होंगे। यही कारण है कि यह महापर्व अपने आप में सबसे अलग, सबसे अनूठा है।
छठी माई और भगवान भास्कर के लिए जो कुछ भी प्रसाद में मिलता है या बनता है, वह सभी प्रकृति से उपजे हुए हैं। अगर हम नहाए खाए से शुरू करें तो कहीं ना कहीं इस दिन कद्दू भात खाने का चलन है। यानी कि कद्दू की सब्जी जो कहीं से बनावटी नहीं है। यह सीधे खेतों से में उगता है और घर तक पहुंच जाता है। चावल जिसे भात भी बोलते हैं, यह भी पूरी तरीके से प्रकृति पर आधारित है। यहां कोई बनावटी या मिलावटी नहीं है।
इसी तरह खरना के दिन शुद्ध गेहूं के आटे की रोटी, गाय का घी और गुड़ तथा चावल में तैयार किया गया खीर कई सालों से हमारी परंपरा के हिस्सा रहे हैं। इसे मिट्टी के चूल्हे पर बनाया जाता है। साथ ही साथ जलावन के रूप में गाय के गोबर के उपले और आम की लकड़ी का प्रयोग होता है। यह पूरी तरीके से हमारी प्रकृतिक प्रेम को दर्शाता है यहां भी कुछ भी बाजारी सामान नहीं है। तीसरे दिन जब अर्घ्य की तैयारी होती है तो उस दिन भी हमें पूरी तरीके से प्राकृतिक पर ही निर्भर रहना पड़ता है।
छठी माई या सूर्य देवता के लिए जो अर्घ्य में सामान रखे जाते हैं, वह फल-फलहरी होता है। यानी कि उस मौसम में जो फल उपलब्ध है, वही अर्घ्य पर जाता है जैसे कि सेब, संतरा, नारियल, नाशपाती, अमरूद, अनार, मूली, अदरक आदि…। वही एक खास प्रसाद ठेकुआ भी घर पर ही बनाया जाता है जिसे बनाने के लिए शुद्ध गेहूं के आटे, गुड़ और घी का इस्तेमाल किया जाता है। यह भी पूरी तरीके से घर और प्राकृतिक पर निर्भर है। यहां भी बाजार का कोई काम नहीं। सूर्य देवता को अर्घ्य देने के लिए जिस टोकरी का इस्तेमाल किया जाता है, वह बांस से बना हुआ होता है। कलसूप भी बांस से ही बनाया जाता है। कुल मिलाकर देखें तो छठ महापर्व स्वच्छता, समानता के साथ-साथ हमें प्रकृति को बचाने और इसकी सेवा पर जोर देने के लिए प्रेरित करता है।